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भारतीय राजनीति में जातिवाद

अपने इस विशेष अंक में आज हम बात करेंगे भारतीय राजनीति (Indian Politics) में जातिवाद के सम्बंध में, एक परंपरावादी सामाजिक संरचना में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना भारतीय राजनीति का एक अद्भुत पक्ष है, उदारवादी, जनतंत्रीय संस्थाओं और आधुनिक मूल्यों तथा मान्यताओं को अपनाने के परिणाम स्वरुप भारतीय राजनीति (Indian Politics) और जाति व्यवस्था का पारस्परिक संबंध एक विचित्र समस्या प्रस्तुत करता है।

जाति व्यवस्था भारतीय समाज का अटूट अंग रही है और इसने जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित किया है स्वतंत्रता से पूर्व भी जाति व्यवस्था का राजनीतिक जीवन पर काफी प्रभाव था स्वतंत्रता के बाद जाति व्यवस्था का अंत नहीं हुआ लेकिन स्वरूप अवश्य परिवर्तन हो गया !

भारत के राजनीतिक (Indian Politics) आधुनिकीकरण के प्रारंभ होने के पश्चात सामान्य रूप से यह धारणा विकसित हुई कि पश्चिमी राजनीतिक तंत्र और जनतंत्रात्मक मूल्यों को अपनाने के फल स्वरुप भारतीय समाज से जातिवाद का अंत हो जाएगा इसलिए यह प्रश्न बराबर उठाता रहा है कि क्या जातिवाद का लोप हो रहा है? गत लगभग 60 वर्षों में राजनीतिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली और सामान्य राजनीतिक जीवन के अनुभव से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि भारत की सामाजिक और राजनीतिक (Indian Politics) व्यवस्था पर जातिवाद का प्रभाव विद्यमान है।

प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक लॉयड रुडाल्फ और सूजन रूडाल्फ ने भी यह माना कि भारतीय समाज से जाति का विनाश नहीं हो सकता जाति का स्वरूप अवश्य परिवर्तित होता रहेगा, एक परंपरा वादी व्यवस्था के आधुनिकीकरण के मूल्यों के अनुरूप परिवर्तित होने को ही उन्होंने “परंपराओं की आधुनिकता” का नाम दिया है।

तथा रजनी कोठारी का भी यह मत है कि भारतीय राजनीति और जाति व्यवस्था के पारस्परिक संबंधों के विषय में यह आशा करना कि जनतंत्रीय संस्थाओं की स्थापना के बाद जाति व्यवस्था का लोप हो जाना चाहिए एक भ्रामक और त्रुटि पूर्ण विचार है, उनका यह दावा है कि कोई भी सामाजिक तंत्र कभी भी पूर्णतया समाप्त नहीं हो सकता, यह प्रश्न करना कि क्या भारत में जाति का लोप हो रहा है, व्यर्थ है।

दरअसल सामाजिक और राजनीतिक जीवन को एक दूसरे से पूर्णतया पृथक नहीं किया जा सकता यह अन्योन्याश्रित तथा एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और एक दूसरे के स्वरूप को निर्धारित करने में समान महत्व रखते हैं इसीलिए रजनी कोठारी का मानना है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह प्रश्न ज्यादा सार्थक है कि आधुनिक राजनीति के प्रभाव में जाति व्यवस्था किस प्रकार का रूप धारण कर रही है।

और एक जाति-अभिमुख समाज में राजनीति क्या स्वरूप अपना रही है? उनका यह भी कहना है कि ‘वे लोग जो भारतीय राजनीति में जातिवाद के विद्यमान होने की शिकायत करते हैं, वह एक ऐसी राजनीति की कल्पना करते हैं जो समाज में संभव नहीं है!

राजनीतिक (Indian Politics) व्यवस्था का जाति व्यवस्था पर प्रभाव

वर्तमान समय में निश्चित रूप से यह स्पष्ट होता है कि भारत में जाति व्यवस्था और राजनीतिक तंत्र दोनों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है और यह द्विपक्षीय है प्रभाव इस कारण स्वाभाविक प्रतीत होता है कि आधुनिक समाजों में राजनीतिक सत्ता में बिना भागीदार बने कोई भी समूह अपना संपूर्ण विकास नहीं कर सकता।

इसलिए आधुनिक समाजों में राजनीतिक उदासीनता और राजनीतिक अलगाव वाँछनीय नहीं है, राजनीति एक प्रतियोगी क्रिया है इसका लक्ष्य कुछ निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राजनीतिक सत्ता को प्राप्त करना है, एक ऐसे समाज में जिसमें राजनीतिक समानता के सिद्धांत को मान्यता दी गई हो और उसमें सरकार का निर्माण और परिवर्तन बहुमत की इच्छा के द्वारा होता हो और उसमें सरकार का निर्माण और परिवर्तन बहुमत की इच्छा के द्वारा होता हो प्रत्येक उस समूह के लिए जो राजनीतिक सत्ता को ग्रहण करना चाहता है।

अन्य समूहों की सहायता और समर्थन प्राप्त करना आवश्यक होगा ! यही कारण है की स्वतंत्रता के पश्चात भारत की राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन आया और गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गई , धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया गया , जातीय भेदभाव को अवैधानिक घोषित किया गया और वयस्क मताधिकार के द्वारा देश के प्रत्येक नागरिक को उसके धर्म ,जाति , मूल , वंश आदि के भेदभाव को स्वीकार किए बिना राजनीति में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया तो परंपरावादी जाति व्यवस्था के बंधन ढीले पड़े।

उच्च राजनीतिक पद जो अब तक उच्च जातियों के जन्मजात अधिकार समझ जाते थे , यह समाज के हर छोटे-बड़े , -अमीर-गरीब उच्च और निम्न जाति के लोगों के लिए उपलब्ध हो गए , राजनीतिक समानता ने सामाजिक असमानताओं की दीवारों को तोड़ दिया बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों में एक ओर निम्न जातियों को राजनीति में प्रवेश करने का अवसर प्राप्त हुआ और दूसरी ओर इस नई राजनीतिक व्यवस्था में समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए उच्च जाति के लोगों को परिस्थितिवश निम्न जातियों के सहयोग और समर्थन के लिए तैयार होना पड़ा क्योंकि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक पदों का आधार प्रतियोगिता बन गई।

इस प्रतियोगिता में सफलता प्राप्त करने के लिए उच्च वर्ग के लोगों को भी निम्न वर्ग के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना आवश्यक हो गया , यहां तक की गैर सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्र में भी उच्च जाति के मतदाताओं ने निम्न जाति के उम्मीदवारों को उन्हें निःसंकोच रूप से अपने प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित किया राजनीतिक आधुनिकीकरण में सामाजिक प्रतियोगिता के नए द्वार खोल दिए , परंपरावादी समाज में सामाजिक स्थिति को प्राप्त करने के लिए किसी प्रतियोगिता का प्रश्न नहीं था क्योंकि सामाजिक स्थिति पैतृक अथवा जन्म से निर्धारित होती है।

आधुनिक राजनीति ने स्थिति निर्धारण का आधार व्यक्तिगत निष्पादन अथवा उपलब्धि को बना दिया , विभिन्न जातियों को अपने परंपरावादी बंधनों को तोड़कर एक दूसरे के समर्थन को प्राप्त करने के लिए हाथ बढ़ाना पड़ा! भारत की परंपरावादी जाति व्यवस्था में यह मौलिक परिवर्तन था कि विभिन्न जातियों के बीच पारस्परिक सहयोग की भावना का विकास हुआ।

राजनीति में धर्मनीरपेक्षता के तत्वों के प्रवेश करने के फलस्वरुप विभिन्न जाति समूहों को धर्मनिरपेक्षता के रवैये को किसी न किसी मात्रा और रूप में अपनाना पड़ा! क्योंकि बदलती हुई राजनीतिक व्यवस्था और बदलते हुए राजनीतिक मूल्यों को अपनाए बिना राजनीतिक क्षेत्र में सफलता संभव न थी , अतः यह कहना गलत ना होगा कि भारत की जाति व्यवस्था के परंपरावादी स्वरूप में परिवर्तन आना देश में होने वाले राजनीतिक परिवर्तनों का स्वाभाविक परिणाम था ।

निश्चित रूप से यह भी नहीं कहा जा सकता की विभिन्न जातियों में विशेषकर उच्च जातियों की अभिवृत्ति में होने वाला परिवर्तन पूर्णतया ऐच्छिक था या राजनीतिक विवशता अथवा राजनीतिक स्वार्थ का फल।परंतु प्रत्येक जाति ने यह महसूस किया कि राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने, अपने हितों को सुरक्षित रखने और सामाजिक प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए राजनीति के बदलते हुए मूल्य को अपनाना जरूरी है।

परिणाम यह हुआ कि समाज की सभी जातियों ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया राजनीति में सफलता के लिए उन्हें उदारवादी तथा सहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाना पड़ा क्योंकि इसके बिना चुनाव में सफलता संभव नहीं है अतः सामान्य रूप से सभी जातियों ने राजनीतिक समानता के सिद्धांत को स्वीकार करने और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाने की घोषणा की !

जिसके परिणामस्वरुप भारत के राजनीतिक व्यवस्था के परिवर्तित होने से दो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए पहला यह कि राजनीतिक क्षेत्र सर्वसाधारण के प्रवेश के लिए खुल गया और अवसरों की सामानता ने हर जाति के लोगों को राजनीति में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया तथा दूसरा राजनीतिक सफलता के लिए बहुमत के समर्थन को प्राप्त करने की आवश्यकता में उच्च जातियों को इस बात के लिए बाध्य किया कि वह अपनी परंपरावादी अभिवृत्ति को परिवर्तित करें और आधुनिक राजनीतिक भाषा को ग्रहण करें इन दोनों परिवर्तनों के फलस्वरुप जाति व्यवस्था का परंपरावादी स्वरूप परिवर्तित हो गया ।

वर्तमान भारतीय राजनीति (Indian Politics) में भी जातिवाद व सामाजिक समीकरणों को साधने की बानगी समय-समय पर दिखती है प्रदेशों से लेकर केंद्र सरकार तक कोई भी दल सत्ता में हो किंतु वह सामाजिक समीकरणों को साधने की पूरी कोशिश करते हुए विभिन्न जातियों से ताल्लुक रखने वाले जनप्रतिनिधियों को आगे लाकर सत्ता में महत्वपूर्ण भागीदारी प्रदान करते हैं ।

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