देश की राजनीति में न्यायपालिका (Judiciary) की क्या भूमिका है आज हम अपने इस विशेष अंक में इस पर विस्तृत बात करेंगे, सर्वविदित है कि देश में राजनीति से इतर एक न्यायपालिका (Judiciary) भी है भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका (Judiciary) की आवश्यकता कई कारणों से महसूस की गई, पहला ये कि भारत का एक लिखित संविधान है जिसमें केंद्र तथा राज्य सरकारों और इन सरकारों के विभिन्न अंगों के कार्य क्षेत्र तथा शक्तियों का उल्लेख किया गया है।
भारतीय राजनीति में न्यायपालिका (Judiciary) की क्या भूमिका है?
यद्यपि संविधान बनाने वालों ने अस्पष्टताओं का अंत करने की दृष्टि से विस्तृत संविधान की रचना की थी और उसके अर्थों के संबंध में मतभेद होना स्वाभाविक है अतः संविधान की व्याख्या करने के लिए एक निष्पक्ष तथा स्वतंत्र न्यायपालिका (Judiciary) की आवश्यकता थी।
दूसरा- भारतीय संविधान ने एक संघात्मक सरकार की स्थापना की है जिसमें केंद्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण संविधान द्वारा कर दिया गया लेकिन केंद्र तथा राज्यों के बीच अथवा विभिन्न राज्यों में आपस में क्षेत्राधिकार संबंधी झगड़े उठ सकते हैं इन विवादों को न्यायपूर्ण ढंग से हल करने के लिए एक न्यायिक संस्था का होना आवश्यक है।
तीसरा- संविधान के भाग 3 में नागरिकों को कुछ मूल अधिकार दिए गए हैं और यह व्यवस्था की गई है कि केंद्र तथा राज्य सरकारें कोई ऐसा कानून न बनाएं अथवा कोई ऐसा कार्य न करें जिसे इन अधिकारों का अतिक्रमण होता हो।
दूसरे शब्दों में मूल अधिकार केंद्र तथा राज्य सरकारों की शक्तियों को प्रतिबंधित करते हैं संविधान के इस उद्देश्य को प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक था कि कोई ऐसी शक्ति हो जो नागरिकों के मूल अधिकारों को सरकार द्वारा अतिक्रमण किए जाने से बचा सके।
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सर्वोच्च न्यायालय मूल अधिकारों के रक्षक के रूप में कार्य करता है और सरकार के विभिन्न अंगों को अपने निर्धारित कार्य क्षेत्र में रहने के लिए बाध्य करता है।
इंग्लैंड के संविधान के विपरीत जहां संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत को माना गया है, भारत में संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत को स्वीकार किया गया है संविधान देश की मौलिक विधि है और केंद्र तथा राज्य सरकारों के राजनीतिक सत्ता का तथा नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का स्रोत है।
सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है और उसे किसी भी सरकार अथवा शक्ति के द्वारा उलंघन से बचाता है, भारत के संविधान ने न्यायपालिका (Judiciary) को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार दिया है इसके अनुसार केंद्र तथा राज्यों के द्वारा बनाए गए कानून की संवैधानिकता का परीक्षण करने का अधिकार क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को प्राप्त है।
यदि इस परीक्षण के परिणामस्वरुप कोई कानून अथवा कार्यकारिणी आदेश संविधान की किसी धारा के विपरीत पाया जाता है तो न्यायालय को यह अधिकार है कि वह उस कानून को असंवैधानिक घोषित करके उसे लागू होने से रोक दे।
इस प्रकार भारत की संसद तथा राज्य विधानमंडल केवल उन्हीं विषयों पर कानून बना सकते हैं जो संविधान द्वारा उन्हें सौंपें गए हैं और इंग्लैंड की संसद के विपरीत, जिसे किसी भी कानून को बनाने अथवा बदलने का अधिकार प्राप्त है भारत की संसद अथवा राज्य विधानमंडलों की विधायिनी शक्तियां सीमित हैं।